सिक्ख कौन है? : गुरुवाणी अनुसार

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ठाकुर दलीप सिंह 

“सो सिखु, सखा, बंधपु है भाई: जि गुर के भाणे विचि आवै” (पृष्ठ ੬੦੧, म.३) सतगुरु अमर दास जी की वाणी के अनुसार, “सिख” वह है, जो गुरु का भाणा (वचन) मानता है। गुरु जी का वचन क्या है? “हरि को नामु जपि निरमल करमु” (पृष्ठ ੨੬੬, म.५) अर्थात: प्रभु का नाम जप और शुभ कर्म कर। जो भी मनुष्य, सतगुरु जी के इस वचन को मानता है और गुरु नानक देव जी के प्रति श्रद्धा रखता है; वह व्यक्ति ही “सिख” (शिष्य/मुरीद) है। क्योंकि “सिखी” श्रद्धा से है, “सतिगुर की नित सरधा लागी मो कउ” (पृष्ठ ੯੮੨, म.४)। सतगुरु नानक देव जी के प्रति श्रद्धा रखने वाला केवल मनुष्य ही नहीं, प्रत्येक प्राणी: नानकपंथी-सिख (शिष्य/मुरीद) है। जिस सर्प ने गुरु जी पर छाया की थी, वह भी “सिख” था।

“गुरद्वारा एक्ट” में लिखी हुई “सिख” की परिभाषा लिखी गयी है, वह केवल गुरद्वारा चुनाव के लिए है। परंतु, यह परिभाषा गुरुवाणी की मूल भावना के विरुद्ध है, मेरा मानना है जो अंग्रेजों ने सिख पंथ का महत्व कम करने के लिए बनाई थी। जो परिभाषा, यहाँ मैं लिख रहा हूँ, यह परिभाषा पूर्ण रूप से गुरुवाणी आधारित है।

सतगुरु नानक देव जी की वाणी में सिखी की व्याख्या यह है: “सिखी सिखिआ गुर वीचारि” (पृष्ठ ४६५) अर्थात: गुरु की शिक्षा को विचार कर मानना ही सिखी है। गुरुवाणी अनुसार, सिखी बाहरी स्वरूप से नहीं और किसी विशेष पहिरावे से भी नहीं। सतगुरु नानक देव जी ने तो वाणी में, हर वेश/भेख का खंडन किया गया है “छोडहु वेसु भेख चतुराई” (पृष्ठ ५९८)। सतगुरु अमरदास जी उच्चारण करते हैं ‘वेसी सहु न पाईऐ करि करि वेस रही ॥ नानक तिनी सहु पाइआ जिनी गुर की सिख सुणी ”। अर्थात: किसी भी बाहरी स्वरूप से प्रभु-प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रभु-प्राप्ति तो केवल उसी को होती है जो गुरु जी की शिक्षा को सुन कर मानता है।
संपूर्ण आदि, दशम व भाई गुरदास जी की वाणी में, कहीं भी सिख का बाहरी स्वरूप या वेश/पहरावा निर्धारित नहीं किया गया। भाई गुरदास जी अनुसार: गुरू जी के पास संगत में आने वाले सिख तिलक लगाते थे “मथै टिके लाल लाइ साधसंगति चलि जाइ बहंदे”
गुरु जी द्वारा, सिखों को किसी भी प्रकार के बाहरी स्वरूप (तिलक, जंझू, टोपी, सुन्नत, केश, दाढ़ी, दस्तार) और कोई भी विशेष पहिरावा पहनने का; गुरुवाणी में आदेश भी नहीं और मनाही भी नहीं की गई। कई सिख संप्रदायों का अपना-अपना बाहरी स्वरूप और भेख है (जैसे नामधारी सिंह सफेद वस्त्र पहनते हैं, निहंग सिंह नीले वस्त्र पहनते हैं, निर्मले महात्मा भगवा वस्त्र पहनते हैं), उन संप्रदायों को मानने वालों के लिए वह सभी स्वरूप ठीक हैं। लेकिन, सिख तो किसी भी बाहरी स्वरूप और भेख के बिना भी हो सकता है।

इसीलिए, “सिखी” तो श्रद्धा से है; “मेरे प्रभि, सरधा भगति मनि भावे” (पृष्ठ ९८२, म.१)। प्रभु रूप गुरू को “श्रद्धा” वाली भक्ति ही अच्छी लगती है। इन पंक्तियों के अनुसार श्रद्धा रखने वाले मोने (केस रहित) भी “सिख” हैं। मोने लोगों को हम नहीं कह सकते “तुम सिख नहीं” हो सकते। क्योंकि, बहुत से “हिंदू कहे जाते” मोने वीर; सतगुरु नानक देव जी को मानते हैं और कुछ तो गुरू जी पर हम से भी अधिक श्रद्धा रखते हैं। इसलिए, वह भी “सिख” हैं। सतगुरु नानक देव जी ने उच्चारण किया है “ना सति मूंड मुडाई केसी ना सति” (पृष्ठ ९५२)। अर्थात: प्रभु प्राप्ति, ना तो केश रखने से होती है और ना ही केश कटवाने से होती है। सतगुरु गोबिंद सिंह जी ने “अकाल उस्तत” में लिखा है “केस धरे न मिले हरि पिआरे” अर्थात: केवल केश रख लेने से प्रभु प्राप्ति नहीं होती। गुरु ग्रंथ साहिब में तो यह भी लिखा है “भावै लांबे केस करु भावै घररि मुडाइ” (पृष्ठ १३६५)
उपरोक्त पंक्तियों के अनुसार सिख बनने के लिए केश दाढ़ी रखना जरूरी नहीं है: केश दाढ़ी के बिना भी सिख हो सकता है। इस लिए सिखी: केश दाढ़ी से नहीं है; सिखी तो गुरु के प्रति विश्वास के साथ है। क्योंकि गुरू जी उचारण करते हैं “जा कै मनि गुर की परतीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति” (पृष्ठ २८२, म.५)। जिस के मन में गुरू जी पर प्रतीत होती है, प्रभु उसके ही मन में बसता है; बाहरले स्वरूप और केश दाढ़ी का कोई महत्व नहीं।
सतिगुरु गोबिन्द सिंह जी के आदेश अनुसार: अमृतधारी सिखों के लिए केश दाढ़ी रखना अनिवार्य है। लेकिन गुरू जी ने कभी यह वचन भी नहीं किया “जो अमृत नहीं छकता और केश दाढ़ी नहीं रखता; वह सिख ही नहीं है”। “अमृतधारी खालसा पंथ” तो समुच्चे सिख पंथ का एक “श्रेष्ठ-अंग” है। लेकिन समुच्चा सिख पंथ: केवल “अमृतधारी खालसा” ही नहीं; सिख पंथ तो सभी “नानक-पंथी” संप्रदाओं को मिला कर बनता है। अन्य सिख संप्रदाओं की तरह “अमृतधारी खालसा” भी एक संप्रदाय है। भाई घनैया, भाई नंदलाल, दीवान टोडर मल आदि सिख; दसवें पातशाह जी के समय भी “अमृतधारी” नहीं थे: लेकिन वह भी महान “सिख” थे। राय बुलार, गनी खान, नबी खान, पीर बुद्धू शाह आदि भी सिख/मुरीद थे। आज भी जो प्राणी, गुरु जी प्रति श्रद्धा रखता है; वह ही नानकपंथी-सिख (मुरीद) है।
सिख पंथ “भक्ति-मार्ग” है। क्योंकि अपने शिष्यों को, गुरु जी ने भक्त बनाया है। इस कारण, भक्तों के जो लक्षण गुरु जी ने लिखे हैं, वह ही लक्षण सिक्खों में भी होने चाहिए। इन लक्षणों में गुरु जी ने किसी भी प्रकार के वस्त्र, केश-दाढ़ी आदि बाहरी स्वरूप का उल्लेख ही नहीं किया।
भगता की चाल निराली ॥
चाला निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा ॥
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाही बोलणा ॥
खंनिअहु तिखी वालहु निकी एतु मारगि जाणा ॥
गुर परसादी जिनी आपु तजिआ हरि वासना समाणी ॥ (म.३, पृष्ठ ९१८)
उपरोक्त शब्द का संक्षिप्त अर्थ है कि सामान्य लोगों से भगतों/सिखों की जीवन शैली अलग होती है: बुरे कर्मों और तृष्णाओं का त्याग कर, गुरु-कृपा के साथ आपा-भाव (अहंकार) त्याग कर, प्रभु-भक्ति करनी। क्योंकि काम, क्रोध, तृष्णा आदि विकारों को छोड़ना अत्यंत कठिन है। इसी कारण, यह “भक्ति-मार्ग” खंडे की धार पर चलने जैसा कठिन है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि गुरुवाणी अनुसार: गुरु जी पर श्रद्धा रखने वाला भगत, बिना किसी भी बाहरी स्वरूप व पहरावे के भी “सिख” है। क्योंकि सिखी श्रद्धा से है; बाहरी स्वरूप से नहीं।

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