ज्ञानप्रकाश नई दिल्ली , विज्ञान व भौतिकवाद ने चाहे असीमित विकास कर लिया है, लेकिन बावजूद इसके पुरातन परंपराएं, संस्कृति और जीवनोपयोगी साधनों का आज भी महत्व बरकरार है। इन्हीं कुछ मिसालों में से एक मिट्टी का घड़ा भी है। सिर्फ तीस रु पये से लेकर 500 रुपये तक आकार के हिसाब से राजधानी के किसी कोने में मिल जाने वाले इस फ्रिज की कमी को पूरा करने वाले घड़े का इस्तेमाल करने वाले समाज का बड़ा तबका दीवाना है। कटका टंकी, गोल मटका टोंटी लगी व सुराही, छोटी मिट्टी की बोतले, मटकों के उपरी सतहों पर खूबसूरत नक्कासी लोगों को सेहतमंद बनाने के साथ ही उनकी डायनिंग कक्ष की शोभा भी बड़ा रहे हैं।
यहां बिकते हैं ज्यादा:
दिल्ली में अनिधिकृत, लाल डोरा और पहचान किए गए करीब 360 गांवों में आज भी अधिकांश लोग घड़े का प्रयोग करते हैं। अब इसका प्रचलन शहरीकृत गांवों, पॉश कालोनियों से लेकर कुछ फाइव स्टार होटल व रेस्तरां तक भी अपने स्वागत कक्ष के बाहर खुबसूरत आकार वाले इस घड़े को रखने लगे हैं। दरअसल, कुंभार कालोनी के संत मोहन कहते हैं कि इसका प्रयोग अब पानी पीने के साथ ही सजावट के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। पहले हम सादा घड़ा कम कीमत पर बेंचते थे जो अब घड़े के उपरी हिस्में में नक्कासी करने के साथ ही नलकी भी लगा रहे हैं। गरीबों का फ्रिज कहलाने वाला घड़ा कुम्भाहार संप्रदाय के लोग बनाते हैं। घड़ा, मटका व सुराही इसके विभिन्न रूप हैं।
स्वागत कक्ष, डाइनिंग रूम की शोभा:
बिंदापुर कुंभार कालोनी में बीते तीन दशक से घड़ा बनाने वाले रामू कहते हैं कि घड़े के पानी को पीने के लिए गिलास का प्रयोग करते हैं तो उसे खोलना पड़ता है, हाथ भी अक्सर पानी में चला जाता है, जो दूषित होने की संभावना को प्रबल करता है। इससे बचने के लिए ही अब टोंटी युक्त मटके, सुराही, व घड़े का निर्माण कर रहे हैं। जिसे लोग हंसी खुशी खरीदने में दिलचस्पी भी ले रहे हैं। उत्तम नगर के कुंभार कालोनी, सागरपुर की लाल बत्ती, मोती नगर, गाजीपुर, जखीरा, गीता कोलोनी, बिंदापुर, नांगलोई, पडपडगंज गांव, पहाडगंज, रेलवे स्टेशन के बाहर। वहीं, 67 वर्षीय खेमचंद का कहना है कि गर्मी से बेहाल लोग इलेक्ट्रिक फ्रिज का ठंडा पानी एक दम से पी लेते हैं जो सेहत, पेट व दांतों के लिए नुकसानदायक है, जबकि इसके मुकाबले घड़े का पानी ठंडा तो होता है पर नुकसानदेह नहीं होता।
ऐसे बनता है:
घड़ा कैसे बनता है, इसके बारे में भाई कल्ली कहते हैं कि चिकनी मिंट्टी में रेत मिलाकर और फिर इसे गूंथकर चाक पर चढ़ाकर बड़ी कुशलता से मन चाहा साइज दिया जाता है। फिर इसे पांच से छह दिन तक धूप में सुखाया जाता है। सूख जाने पर भट्ठीनुमा संयत्र में उपलों तथा लकड़यिों के मध्य रखकर आग से दो दिन तक पकाया जाता है और आग ठंडी होने पर बाहर आता है गरीबों का फ्रिज। भले आजकल थोड़ी मांग कम होने के चलते कुम्हार भी घड़े बनाने में कम रु चि दिखाते हैं, लेकिन फिर भी इसका महत्व न तो अभी खत्म हुआ है और न ही कभी खत्म होगा।
कीमत भी नहीं है अधिक:
बाजार में मिलने वाले विभिन्न आकार के मटकों के साथ लंबी गर्दन वाली सुराही भी मौजूद है,जिनकी कारीगरी और डिजाइन लोगों को खूब पसंद आती है। इन मिट्टी से बने बर्तनों में बारीक छिद्र होते हैं, जिनसे छनकर बाहरी हवा मटके के अंदर प्रवेश करती है अैर उसे ठंडक देती है। बाजार में विभिन्न आकार व प्रकार के मटके उपलब्ध हैं। इनमें कटका टंकी, गोल मटका व सुराही आदि प्रमुख है। कीमत उसकी क्षमता व मटके के आंतरिक आयतन पर निर्भर करती है। बाजार में मटके के आकार के अनुसार स्टैंड की बिक्री भी हो रही है। लोहे व एल्युमिनियम से बने स्टैंड खासतौर पर बाजार में बिक रहे हैं।
वैज्ञानिकों की नजर में:
मैक्स कैथलैब के निदेशक डा. विवेका कुमार के अनुसार इसमें मिट्टी के क्षारीय गुण विद्यमान होते हैं। क्षारीय तत्व पानी की अम्लता के साथ तालमेल बनाकर उचित पीएच संतुलन प्रदान करते हैं। इस पानी को पीने से एसिडिटी पर अंकुश लगाने और पेट के दर्द से राहत पाने में मदद मिलती है। इको फ्रेंडली ठंडे पानी के बर्तन का प्रचलन भी सेहतमंत है। मिट्टी से बनी बोतलों में पानी डालकर आसानी से वाहन में रखकर कहीं भी ले जाया जा सकता है। ये बोतले भी कई आकार व डिजाइन, ढक्कन और बिना ढक्कन वाली बोतले बाजार में उपलब्ध हैं।
चयापचय को बढ़ावा:
कार्डियालॉजिस्ट डा. रजनीश मल्होत्रा कहते हैं कि नियमित रूप से घड़े का पानी पीने से प्रतिरक्षा पण्राली को बढ़ावा देने में मदद मिलती है। प्लास्टिक की बोतलों में पानी स्टोर करने से उसमें प्लास्टिक की अशुद्धियां एकत्रित हो जाती हैं। यह भी पाया गया है कि घड़े में पानी स्टोर करने से शरीर में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है।