समाजसेवा की संजीवनी बांटता ‘सहयोग’

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फरीद अली नई दिल्ली, सम्पत्ति और वैभव की चाहत जिस तरह से दिनों दिन बढ़ती जा रही है ठीक उसी समय नि:स्वार्थ सेवा का भाव रखना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है। जिस कलियुग में लोभ, लालशा, झल और प्रपंच में पूरा समाज घिरा सा दिखता है ऐसे में किसी एक व्यक्ति का हमारे बीच निष्काम भाव से मजबूरों, असहायों, बेघरों की खुशोयों के लिए लड़ना एक बड़ी बात है।
औरों में अपने हिस्से की चीजों को बांटने की लालशा लिए हम सब जीते हैं लेकिन बटोरने की जुगत में बांटने की जिम्मेदारी कब पीछे छूट जाती है पता ही नहीं चलता है। ऐसी चूक हजारों से होती है लेकिन सबसे नहीं। आइए आज आपका परिचय एक ऐसी ही शख्सियत से कराते हैं। ‘मन को जीतने वाले’ श्री मनोज जैन को आपमें से कई जानते होंगे लेकिन इनका जो परिचय आज हम आपके सामने लेकर आए हैं उससे आप यकिनन अछूते होंगे।
मनोज जैन का पूरा परिचय आपको दें उससे पहले आपको ये बताना जरूरी है कि उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन की शुरुआत उनके घर से ही हुई थी। उनके पिता श्री महेश जैन युवा अवस्था से ही राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से जुड़े थे। पिता के नक्शे कदम पर चलते मनोज जी का राष्ट्रवादी सोच स्वत: जागृत होता गया।
23 फरवरी, 1969 को दिल्ली में जन्में मनोज जी युवा अवस्था में अपने स्कूल की कक्षाओं को छोड़कर राजनीतिक रैलियों में रिक्शे में बैठकर ऊंची आवाज में अपने चहेते नेताओं के लिए वोट मांगते थे। कैंपेनिंग करने और पोस्टर लगाने की बात करते हुए आज भी उनके चेहरे पर जीत का भाव नजर आता है।
2003 की दिल्ली विधानसभा चुनाव में वो बीजेपी के सबसे कम उम्र के उम्मीदवार के रुप में मैदान में उतरे थे। मिंटोरोड विधानसभा क्षेत्र से अपना भाग्य आजमा रहे इस उम्मीदवार की श्रीमति ताजदार बब्बर के हाथों हार तो हुई लेकिन बचपन में ही पिता के द्वारा सामाजिक दायित्व की मिली सीख मनोज जी को किसी और दिशा में खींचती गई। लगातार कई वर्षों तक पार्टी में किसी पद से जुड़े नहीं होने के कारण सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें अपना रास्ता साफ साफ दिखने लगा। राजनीतिक महत्वकांक्षाएं पीछे छूट गईं और वो अपने सामाजिक दायित्व को निभाने एक अलग रास्ते पर निकल पडे।
2013 में उन्होंने ‘सहयोग दिल्ली’ नाम के NGO की स्थापना की। सहयोग नाम चुनने के पीछे की वजह बताते हुए वो कहते हैं कि हम तो अपने आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी से जुड़ा नाम चुनना चाहते थे। फिर हमें ध्यान आया कि मोदी का अर्थ तो सहयोग ही होता इसलिए हमने यह नाम अपनी संस्था के लिए चुन लिया। इस तरह ‘सहयोग दिल्ली’ नाम के NGO का जन्म हुआ।
इस NGO के लेटर पैड की बाईं ओर ‘सहयोग मोदी’ लिखा होता है, जिसके ठीक नीचे अंग्रेजी में लिखा होता है, ‘सहयोग दिल्ली की एक पहल’। लेटर हेड के नीचले हिस्से में NGO का नाम और उसकी बाकी जरूरी जानकारियाँ होती हैं।
‘सहयोग दिल्ली’ ने जन्म लिया तो समाज की हरेक पंक्ति में खड़े आखिरी व्यक्ति तक जरूरत की चीजों को पहुंचाने में लग गए मनोज जी। उनका पूरा समय और संसाधन हमेशा इन कार्यों के लिए तैयार रहता था। NGO के नाम में उन्होंने ‘सहयोग’ तो जोड़ा लेकिन उसका मकसद औरों को सहयोग देना था ना कि किसी से कोई सहयोग लेना। पिछले सात सालों में हज़ारो भूखों को खाना खिलाने और जरूरतमंदो की सहायता करने का नेक काम इनकी संस्था ने किया है।
अपना NGO स्थापित करने से पहले मनोज ‘तरुण मित्रा परिषद’ के अध्यक्ष भी रहे। 1975 में स्थापित इस संस्था के उनके पिता भी अध्यक्ष रह चुके थे। तब मनोज जी को बतौर सदस्य वहाँ काम करने का मौका मिलता रहा। तीन बार इस संस्था के अध्यक्ष रह चुके मनोज जी इन दिनों इसके उपाध्यक्ष के रुप में उसका काम-काज देखते हैं। तरुण मित्रा परिषद का उद्देश्य समाज के दबे-कुचले और पीछड़े वंचितों तक उनके जीवन की मूलभूत सुविधाओं को पहुंचाना है।
उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर में बने श्रद्धा सदन के वो मुख्य संयोजक भी हैं। आधुनिक सुविधाओं से लैस 60 कमरों वाले इस केंद्र को बुजुर्गों के लिए बनाया गया था लेकिन उसकी मंजूरी नहीं मिलने के कारण अब इसके इस्तेमाल युवाओं को ट्रेनिंग देने, योगा और मेडिटेशन सेंटर के रुप में किया जा रहा है।
मनोज जी के भरे पूरे परिवार में उनके पिता, उनकी माता, पत्नी, और तीन बेटियाँ हैं। सहयोग के करीब सात साल की यात्रा को याद करते हुए ऊन्हें गर्व महसूस होता है कि जिस उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी आज वो उसपर सरपट दौड़ रही है।
मोदी जी की पहली ऐतिहासिक जीत पर अशोक रोड़ पर जो मोदी टी स्टॉल लगाई गई थी जिसमें करीब 30,000 लोगों ने चाय पी वो मनोज जी के ही प्रयासों का नतीजा था।
सामाजिक कार्यों में लगे रहने वाले मनोज जी को पेज़ थ्री पार्टोयों में दिखने का शॉक नहीं इसीलिए वो अपने किए गए काम-काज का प्रचार भी नहीं करते।
संभ्रान्त परिवार से नजर आने वाले इस शख्स को भला गरीबों, मजबूरों, मजदूरों और असहाय लोगों के प्रति इतनी सहानुभूति कहां से आई और ये बातें उन्होंने कैसे जानीं, ये बताते हुए वो कहते हैं कि उनके पिता ने बड़ी संघर्ष करके जीवन को बनाया। उनके दादा अंग्रेजों के समय में रेलवे में सुपरिटेंडेंट थे।
ताऊ वेंकटेश्वरा कॉलेज से वाइस प्रींसिपल के पद से रिटायर हुए तो चाचा ने देश का पहला कलर टीवी ‘Deltron TV’ के नाम से बनाया था। इन सबने जिंदगीं में बड़ी कठिनाई से कोई मुकाम हासिल किया। उनके उपलब्धियों और उनसे मिली सीख की बात करते हुए वो बताते हैं कि गरीबों और वचिंतों के लिए कुछ करने का अवसर आए तो उसे गंवाना नहीं चाहिए। समाज के पिछड़े और मजबूर लोगों के प्रति सेवा भावना की शुरुआत मुझे पिता जी से ही सीख करके मिली।
पिता ने वॉल पेपर का बिज़नेस जब 1975 में एक डीलरशिप के साथ शुरु किया तो मालूम नहीं था कि समय की बदलती मांग को ध्यान में रखकर उनका बेटा इसे आधुनिक पहचान देगा और पूरे देश में इसे अग्रणी कंपनियों में ला खड़ा करेगा। 1988 में शाहदरा में इसका पहला प्लांट लगाया तो 1994 में उसे पटपड़ गंज इंडस्ट्रीयल एरिया में शिफ्ट कर दिया गया।
अपने कंपनी ULTRAWALLS को विदेशी धरती पर ले जाना और विदेशियों की नज़र में अपने ब्रांड को एक अलग पहचान दिलाने में उन्होंने एक बड़ी कामयाबी हासिल की।
सूर्योदय से पहले अपने दिन की शुरुआत करने वाले मनोज जी बताते हैं कि चीन और कोरिया जैसे देश समयानुसार हमसे कुछ घंटे आगे हैं इसलिए मैं 8.30 बजे ही अपने बाकी स्टाफ से पहले पहुंच कर कार्यालय के बहुत सारे काम निपटा देता था। इस तरह व्यवस्थित और अनुशासित जीवन के रास्ते पर चलकर उन्हें सामाजिक कार्यों के लिए भी पूरा समय मिल जाता है।
प्राकृतिक आपदा हो या कोई महामारी, जरूरत मंदों तक पहुंचने की शुरुआत उन्होंने अपने जीवन में काफी कम उम्र में ही कर दी थी।
गुजरात भूकंप का जिक्र आते ही मनोज याद दिलाते हैं कि कैसे वो कुछ मित्रों की मदद से गुजरात गए और कई सारे कार्य किए। रापड़ के एकता नगर में जमीन खरीदी और 26 जनवरी को आए भूकंप के प्रभावितों के लिए 26 गज के सिंगल स्टोरी मकान की बुनियाद रखी और भूकंप प्रभावितों को सर छुपाने का मौका दिया। करोड़ों रुपये के इस प्रोजेक्ट के लिए उन्हें पूरा फंड दिल्ली से ही मिला। और इसमें चार संस्थाओं ने उनकी बढ़चढ़ कर मदद की।
कोरोना जैसी महामारी ने लोगों को पलायन करने पर जब मजूबर किया तो मनोज जी ने अपनी सहयोग संस्था की ओर से राशन, भोजन और राहत सामग्री बांटने में कोई देरी नहीं की और इसका कभी श्रेय भी नहीं लिया। इस कार्य के लिए ना तो किसी सोशल मीडिया के पोस्ट में और ना ही किसी टीवी या अखबार की खबरों में उन्होंने अपनी तस्वीर डलवाई । कोरोना से प्रभावित 400 लोगों में खाना बांटने की शुरुआत उनकी संस्था ने की और इसके जरिए देखते-ही-देखते वो करीब 1200 लोगों के भूख मिटाने का नेक काम करते रहे। इस कार्य में ‘सहयोग दिल्ली’ को बिकानेर वालों से भी बड़ी सहायता मिली जिससे उनका यह सपना साकार हो सका।
आयुष मंत्रालय ने जब Arsenic Album 30 को कोरोना के खिलाफ जंग में सहायक बताया तो उसकी 6500 से अधिक खुराक सहयोग दिल्ली संस्था ने बांटी। बाद में दिल्ली सेंट्रल डीसीपी के अनुरोध पर इसकी 2000 शीशियाँ उनके कार्यालय में भी पहुंचवाईं जिसे सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट के पुलिस बल में बांटा गया।
सामाज के हरेक वर्ग की जरूरतों के लिए लगातार संघर्ष करने वाले मनोज जी राजघाट से विजय घाट तक यमुना पुश्ता को खाली कराने में काफी पहले एक बड़ी भूमिका निभा चुके हैं। सामाजिक कार्यों के लिए परिवार के बड़ों से मिली प्रेरणा की वजह से वो कई छोटे-बड़े कार्यों से लगातार जुड़े रहे।
राहगीरि का ऐतिहासिक आयोजन भी उनके सामाजिक सरोकार की कहानी बयां करता है जिसमें करीब 25,000 लोगों ने हिस्सा लिया। सीलिंग की समस्या के खिलाफ प्रदर्शन, युवक-युवतियों के विवाह की व्यवस्था, छात्रों के स्कॉलरशिप की सुविधा, खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन जैसी गतिविधियों में वो पूरे मन से हमेशा लगे रहते हैं।
दिल्ली गेट के पास बने मेट्रो स्टेशन का रास्ता अंबेडकर स्टेडियम की ओर दिया गया तो इसे लेकर भी उन्होंने आवाज उठाई। इसी का नतीजा है कि नए फेज में मेट्रो स्टेशन का रास्ता दूसरी छोर पर खोलने का प्रावधान किया गया है। स्थानीय बाज़ारों में महिलाओं के लिए यूरिनल की व्यवस्था करवाने और उसे कैसे सफल बनाया जाए इसको लेकर भी मनोज जी ने कई बार प्रयास किए लेकिन संबंधित अधिकारियों, कार्यालयों और संस्थाओं के ठीक से नहीं समझ पाने के कारण उनके प्रयासों के बाद भी कोई बेहतर नतीजा नहीं निकल सका।
उनके सराहनीय, सामाजिक और सादगीपूर्ण जीवन में अनेंकों कार्य ऐसे हैं जिनका दबे-कुचलों के जीवन पर साकारात्मक असर पड़ा है जिनमें शामिल हैं: मुफ्त चिकित्सा शिविरों का आयोजन, विकलांगो को ट्राइसाइकिल का वितरण, Single Use Plastic के लिए जागरुकता अभियान, बुजुर्गों एवं गर्भवती महिलाओं के लिए स्वास्थ्य जांच शिविर का आयोजन, योग शिविर का आयोजन, हेपेटाइटिस-बी जागरुकता अभियान, सस्ती दर पर टीकाकरण, बाढ़ व सूखा प्रभावित इलाकों में राहत सामग्री का वितरण, सर्दी के मौसम में बेघर और बेसहारा लोगों के लिए रैनबसेरों के इंतजाम के साथ कपड़ों व खाद्य सामग्री की व्यवस्था आदि।
लगातार और बड़े स्तर पर सामाजिक कार्य कईयों के लिए एक चुनौती नजर आ सकते हैं लेकिन ऐसे कार्यों में मनोज जी उत्साहित रहते हैं क्योंकि उन्हें ऐसे कार्यों से ऊर्जा मिलती है जो उन्हें युवा बनाए रखती है।
समाज सेवा, सोशल मीडिया पर एक प्रभावशाली व्यक्तित्व का जीवन और तीर्थ स्थानों का भ्रमण, भला जिनके ऐसे शौक हों उसे समाज के पिछड़ों का दर्द क्यूं ना हो। और यही दर्द मनोज जैन को दूसरों के सपनों को अपना सपना बनाने की प्रेरणा देते हैं।
भविष्य के अपने सपनों की बात करते हुए वो कहते हैं कि अगर आने वाली पीढ़ियाँ मुझे एक सामाजिक सेवक और कार्यकर्ता के रुप में जानेंगी तो मैं उसे अपनी बड़ी सफलता मानूंगा।
समाज के प्रति समर्पित इस सेवक को मौके और भी कई मिलेंगे और उनका संकल्प है कि वो उन कार्यों को भी संपन्न करने में कोई चूक नहीं करेंगे।

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