बेघरों के लिए ठंड नहीं है माईने ठिठुरन से बचने के लिए भरपेट भोजन,बीमारी को खत्म करने के लिए असरदार दवा

डुसिब के 256 रैन बसेरों में 17 हजार से ज्यादा बेघरों का यही है हाल -गंदगी, दुर्गध से हर पल जुझने के लिए है विवश

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ज्ञानप्रकाश नई दिल्ली , ठिठुरन भरी इस ठंड में राजधानी में कम से कम 17 हजार से अधिक बेघरों के लिए फिलहाल दीन दयाल अन्तोदय राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डुसिव) बनाए 193 स्थायी जबकि 63 अस्थायी रैन बसरो में करीब 17 हजार से अधिक लोग बमुश्किल से दिन गुजारने के लिए विवश है। उनका न तो कोई सही स्थाई पता है और न ही दिल्ली जैसे शहर में किराए के मकान में रहने की क्षमता। वे दिन भर जहां जैसे मजदूरी करते हैं और सांझ होते होते इन रैन बसरों की तरफ बढ़ चलते हैं। यह अब इनकी दिनचर्या में ठंड भर शामिल रहेगा। जहां पर इन बेघरों की पहचान सिर्फ उनके नाम और उम्र से की जाती है। हालांकि इसमें 30 से 35 फीसद ऐसे हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और यहां दिन भर देहाड़ी मजदूरी कर अपना पेट पालते हैं और रात को यहां आकर सो जाते हैं। अधिकांश बेघर किसी न किसी बीमारी की गिरफ्त में हैं। वे ठंड से बचाव के लिए फिलहाल बेरोकटोंक नशे का सहारा लेने के लिए विवश हैं। दरअसल, उन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता हैं, जो थोड़ा बहुत मजदूरी में रुपये मिलते हैं वे नशा लेने की बुरी लत को ही तरजीह देते हैं।
ठंड से बचाव के लिए सिर्फ दो कंबल:
रामलीला मैदान के बाहर कमला मार्केट थाने और हमदर्द भवन के मध्य फूटपाथ पर बने पोर्टा केबिन में मंगलवार की रात 8 बजे तक 78 लोग पाए गए। वहीं माता सुंदरी रोड़ के समीप बने डुसिब के स्थाई रैन बसेरा में यह संख्या 123 थी तो मजनू का टीला के सामने बनी जेजे कलस्टर कैंप के पोर्टा केविन में कुल 55 लोग देर रात तक आ चुके थे।
सबकी एक जैसी दिक्कतें:
गीता कालोनी के के चौराहे के करीब 500 मीटर की दूरी पर बने बेघर शिविर रात गुजारने वाले नूर मोहम्मद ने कहा कि यहां हमें खुले में शौच करनी पड़ती है, दरअसल, जो चलता फिरता शौचालय वैन लगाई गई थी वह अक्सर जाम हो जाती है। ओवर फ्लो होने से हम बाहर शौच करने के लिए विवश हैं। उसकी तरह ही अन्य रैन बसेरों में राज गुजारने वाले बेघरों ने बातचीत में बताया कि साहब, गंदगी, दुर्गन्ध से रात बितानी मुश्किल हो जाती है। 67 फीसद लोग तो नसे की लत के आदी है। जो अक्सर आपस में हल्के से विवाद होने की सूरत में जान से मारने के लिए उतारू हो जाते हैं। शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा जो त्वचा रोग से ग्रस्त न हो। डाक्टर भी है लेकिन वे जब हृदयघात हो या फिर गंभीर हालत होने पर ही आते हैं। वैसे तो उन्हें नजदीकी अस्पताल में खुद ही इलाज के लिए भेजा दिया जाता है।
क्या कहते हैं आंकड़े:
दिल्ली में यू तो बेघरों कि संख्या का कोई आंकड़ा नहीं है वहीं अगर हम बेघरों के लिए काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डेवलपमेंट सीएचडी द्वारा प्रेषित आंकड़ों पर फौरी नजर डाले तो स्थिति कुछ ऐसी है। सीएचडी के हालिया रिपोर्ट के अनुसार शहर की एक फीसद की आबादी को बेघर समुदाय में माना जाता है। संस्था के संस्थापक अध्यक्ष एसके आलेडिया के अनुसार दिल्ली में बेघरों को लेकर डुसिब के रिकार्ड में इस वर्ष 221 अस्थाई ओर स्थाई आश्रय गृहों का इंतजाम करने का दावा किया था। पक्के आश्रय गृह कि बात करे तो दिल्ली में मात्र 78 आश्रय गृह है जिसमें 9435 रहते हैं जबकि 115 पोर्टा केबिन अस्थाई है आश्रय गृह है जिसमें 7225 रहने का दावा किया था। लेकिन यह अब तक 60 फीसद ही बन पाए हैं।
फायर एलर्ट:
डुसिव के मुख्य अभियंता अरुन शर्मा के अनुसार बेघरों की संख्या बढ़ने के अनुसार हम अस्थायी पोर्टा केबिन का निर्माण कर रहे हैं। वर्ष 2018 में जब एक टेंट आश्रय गृह में आग लगने से बेघर व्यक्ति जल कर मर गया था तो कोर्ट के संज्ञान के बाद सर्दी में फायर प्रूफ टेंटो का इंतजाम किया जाता रहा हो जो कि कल रात तक 28 जगहों पर चल रहे है जिसमें 1300 बेघरों के रहने की व्यवस्था की गई है। अब तक 193 स्थायी और 63 अस्थायी आश्रय गृहों में इस वर्ष 17960 बेघर लोगो के लिए सुविधाओं का इंतजाम किया है। रेलवे स्टेशन, आईएसबीटी व अन्य अन्तराज्यीय बस टर्मिनलों पर भी वहां के प्रबंधक के अनुसरोध पर सेवाएं दे रहे हैं।

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