11 माह की बच्ची के साथ उसकी गुड़िया भी अस्पताल में भर्ती – गुड़िया को जब डॉक्टरों ने बांधी पट्टी तो बच्ची भी चुपचाप लेट गई वार्ड में – गुड़िया वाली बच्ची को देखने पूरे अस्पताल के मरीज पहुंच रहे वार्ड

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ज्ञानप्रकाश/भारत चौहान
नई दिल्ली , मौलाना आजाज मेडिकल कॉलेज से संबंद्ध लोक नायक अस्पताल में उपचाराधीन करीब 11 माह की मासूम बच्ची के साथ उसकी गुड़िया को भी भर्ती किया है। डॉक्टरों ने एक ही बेड पर दाखिल मासूम बच्ची और उसकी गुड़िया के पैरों पर प्लास्टर चढ़ाया है। अस्थि शल्यक्रिया विभाग में ब्लॉक के 16 नंबर बिस्तर पर लेटी इस बच्ची के दोनों पैरों पर कूल्हे तक पट्टी बंधी है। उसके दोनों पैरों को पट्टी से ऊपर लटकाया है ताकि फ्रैक्चर को जोड़ने में आसानी हो सके। बच्ची के ठीक बाजू में एक गुड़िया लेटी है उसके भी दोनों पैरों में पट्टियां बंधी हैं। डॉक्टर पहले गुड़िया को दवा और इंजेक्शन देते हैं फिर बच्ची खुशी-खुशी उनकी बात मानती है। यह दृश्य देखने के लिए इस वार्ड में शुक्रवार को मरीजों के साथ ही उनके रिश्तेदारों का तांता लगा रहा।
क्या है मामला:
दरियागंज निवासी फरीन दो सप्ताह पहले अपनी 11 माह की बच्ची को लेकर अस्पताल पहुंची थीं। घर पर बेड से नीचे गिरने की वजह से बच्ची के पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर हो गया था। लोकनायक अस्पताल के डा. मनोज के अनुसार बच्ची जिकरा मलिक दर्द से कराह रही थी। मां की गोद में वह तक छटपटाने लगी जब उसने डॉक्टर को इंजेक्शन लगाते देखा। वह हाथ-पैर पटक रही थी। काफी देर बाद भी जब जिकरा शांत नहीं हुई तो उसकी मां ने कहा कि इसकी एक गुड़िया है जो घर पर है। उसे दूध पिलाने के बाद ही ये पीती है। उन्होंने गुड़िया बुलाने की मंजूरी डॉक्टर से मांगने के बाद जब वह अस्पताल आई तो बच्ची खिल उठी। उसे देख डॉक्टर भी हैरान थे। स्थिति यह हो गई कि दवा या इंजेक्शन देने से पहले गुड़िया को देना पड़ा। चूंकि बच्ची को भर्ती करना भी जरूरी था। इसलिए बच्ची के साथ गुडिय़ा को भी भर्ती करना पड़ा। जब जिकरा को फ्रैक्चर के लिए पट्टी बांधने लगे तो वह फिर रोने लगी। डॉक्टर नहीं जानते कि उस वक्त क्या हुआ। लेकिन जहन में एक विचार आते ही उन्होंने गुड़िया के पैरों में पट्टी बांधना शुरू कर दिया। तब से जिकरा अपनी गुड़िया को देख हर पल अस्पताल के बिस्तर पर लेटी खेलती रहती है। जिकरा की मां फरीन कहती हैं कि ये गुड़िया उसकी नानी ने उपहार में दी थी। जब वह 2 माह की आयु की थी तभी से उसे गुड़िया से बेहद लगाव है। घर पर कुछ भी खाने-पीने के लिए पहले गुड़िया को देना पड़ता है तब वह खाती है।
डाक्टर की नजर में :
हड्डीरोग विभागाध्यक्ष डा. अजय गुप्ता के अनुसार करीब तीन दशक के अनुभव में उन्होंने ऐसा केस कभी नहीं देखा। जिकरा मलिक ने अस्पताल के हर डॉक्टर को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि मासूम मरीज का इलाज उसकी साइकोलॉजी के साथ और कैसे बेहतर किया जा सकता है। वे काफी आश्चर्य, खुश और उत्साह के साथ इस केस को पूरे देश के अस्पतालों के लिए सामने लाने के प्रयास में है।
यह भी:
ऑस्ट्रेलियन साइकोलॉजिकल सोसायटी के साल 2016 में सामने आए अध्ययन के अनुसार मासूम बच्चे अस्पताल में आते वक्त काफी ट्रामा स्थिति से जूझ रहे होते हैं। करीब 10 से 15 फीसद चोट लगने के बाद अस्पताल पहुंचने पर काफी विचलित हो जाते हैं। इसे पोस्ट ट्रामामेटिक स्ट्रेस (पीटीएसडी) से भी जाना जाता है। जबकि 20 से 25 फीसद बच्चे आईसीयू में पहुंचने के बाद छटपटाने लगते हैं। रोग के दर्द के अलावा बच्चे इलाज या फिर अस्पताल में मिलने वाले अलग अनुभव से भी काफी परेशान हो जाते हैं।
जरूरी क्यों:

एम्स के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रवीण का कहना है कि मासूम बच्चे पहले ही काफी डरे होते हैं अस्पताल पहुंचने के बाद ये भीड़ और इंजेक्शन बगैरह देख खौफ में आ जाते हैं। इस तरह के केस पूरे चिकित्सा जगत को नई दिशा देने के लिए उदाहरण हैं। देश में काफी कम ऐसे केस मिलते हैं। बच्चों खासतौर पर 2 वर्ष से कम आयु वालों, इनके रोग से ज्यादा मानिसक स्थिति समझने की जरूरत होती है। इस उम्र के बच्चे न बोल पाते हैं और न कुछ बता पाते हैं, ऐसे में इनके दर्द को समझते हुए इलाज देना बड़ी चुनौती होता है।

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