भारतीय रक्षा प्रयोगशाला ने ‘युद्धक दवाएं’ विकसित कीं

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ज्ञानप्रकाश नयी दिल्ली, गंभीर रूप से घायल सुरक्षा कर्मियों में से 90 प्रतिशत कुछ घंटे में दम तोड़ देते हैं । इसे ध्यान में रखते हुए डीआरडीओ की चिकित्सकीय प्रयोगशाला ‘कॉम्बैट कैजुएलिटी ड्रग’ लेकर आयी है जिससे घायल जवानों को अस्पताल में पहुंचाए जाने से पहले तक के बेहद नाजुक समय को बढाया जा सके जिसे घायल जवानों की जान बचाने के लिहाज से ‘गोल्डन’ समय कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने बताया कि इन दवाओं में रक्तस्रव वाले घाव को भरने वाली दवा, अवशोषक ड्रेंिसग और ग्लिसरेटेड सैलाइन शामिल हैं। ये सभी चीजें जंगल, अत्यधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में युद्ध और आतंकवादी हमलों की स्थिति में जीवन बचा सकती हैं। वैज्ञानिकों ने 14 फरवरी को पुलवामा में आतंकवादी हमले का उल्लेख किया जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गए थे। वैज्ञानिकों ने कहा कि इन दवाओं से मृतक संख्या में कमी लायी जा सकती है। डीआरडीओ की प्रयोगशाला इंस्टीट्यूट आफ न्यूक्लियर मेडिसिन एंड अलाइड साइंसेस में दवाओं को तैयार करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार घायल होने के बाद और अस्पताल पहुंचाये जाने से पहले यदि घायल को प्रभावी प्राथमिक उपचार दिया जाए तो उसके जीवित बचने की संभावना अधिक होती है। संगठन में लाइफ साइंसेस के महानिदेशक ए केंिसह ने कहा कि डीआरडीओ की स्वदेशी निर्मित दवाएं अर्धसैनिक बलों और रक्षा कर्मियों के लिए युद्ध के समय में वरदान हैं। ‘‘ये दवाएं यह सुनिश्चित करेंगी कि घायल जवानों को युद्धक्षेत्र से बेहतर स्वास्थ्य देखभाल के लिए ले जाये जाने के दौरान हमारे वीर जवानों का खून बेकार में न बहे ।’’ विशेषज्ञों ने कहा कि चुनौतियां कई हैं। ज्यादातर मामलों में युद्ध के दौरान सैनिकों की देखभाल के लिए केवल एक चिकित्साकर्मी और सीमित उपकरण होते हैं। युद्धक्षेत्र की स्थितियों से चुनौतियां और जटिल हो जाती हैं, जैसे जंगल एवं पहाड़ी इलाके तथा वाहनों की पहुंच के लिहाज से दुर्गम क्षेत्र।

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