तीन राज्यों में बीजेपी की हार का केंद्रीय राजनीति पर असर और 2019 का चुनाव : प्रीती कमल

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सम्पादकीय -हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनावों में तीन राज्यों (राज्सथान, मध्यप्रदेश और
छत्तीसगढ़) की सत्ता कांग्रेस के हाथों चली गई जिसका ख़ासा असर बीजेपी पर
देखने को मिला। यक़ीनन इसमें कोई दोराय नहीं कि कांग्रेस की जीत के बाद
सियासी माहौल में काफी बड़े स्तर पर बदलाव आया है। कांग्रेस की इस शानदार
जीत के साथ ही उसके शासनकाल में तीन गुणा बढ़ोत्तरी हुई है यानि कि अब
कांग्रेस का शासन देश की 21 प्रतिशत आबादी पर हो गया है। आपको बता दें
कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार के बाद देश की करीब 14
प्रतिशत आबादी बीजेपी के शासन क्षेत्र से फिसल गई है। क्या अब बीजेपी के
लिए यह समय चिंतन और मनन करने का है जिससे वो ये जान सके कि
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे बड़े राज्य की सत्ता में वर्षों क़ाबिज़ होने के
बावजूद उन्हें वहां हार का सामना करना पड़ा।
अब थोड़ा समय पीछे चलकर देखें कि जब वर्ष 2014 में बीजेपी ने केंद्र की
सत्ता अपने हाथों ली थी तब उस समय बीजेपी का क़द काफी बढ़ गया था।
मोदी लहर की बयार पर सवार कई राजनीतिक दल भी सियासत में शामिल हुए
थे। बुनियादी तौर पर ये एक सत्य घटना ही थी कि उस दौर में बीजेपी अपने
मुखर अंदाज़ और तमाम तरह के विकास के वायदों के शबाब पर थी, जिसका
असर लगातार बढ़ता ही जा रहा था। अगर उस समय की तुलना वर्तमान से की
जाए तो निश्चित तौर पर हालिया नतीजों का केंद्र पर काफी बुरा असर पड़ा है,
इतना ही नहीं इन नतीजों का असर बीजेपी के उस मंसूबे पर भी पड़ा है जिसके
तहत पूरे देश के नक़्शे को भगवामय करने और कांग्रेस मुक्त भारत का सपना
देखा गया था।
वहीं अगर कांग्रेस की बात करें तो आगामी लोकसभा चुनाव के लिए वो भी ख़ुद
को मैदान में उतारने की तैयारियों में बड़े ही ज़ोर-शोर से काम कर रही है।
लोकसभा चुनाव को लेकर समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच गठबंधन की
बातचीत शुरू हो चुकी है। हालांकि कांग्रेस को लेकर अभी भी भ्रम की स्थिति

बनी हुई है कि वो इस गठबंधन का हिस्सा होगी कि नहीं, लेकिन सियासतदारों
की मानें तो तीन राज्यों में कांग्रेस की जीत के बाद बने माहौल में गठबंधन में
कांग्रेस का शामिल होना काफी फ़ायदेमंद साबित हो सकता है। अगर ये तीनों
दल एक हो जाएं तो आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए एक बड़ी
चुनौती बन सकते हैं।
यह स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि हालिया चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस
की स्थिति में सुधार किया है वहीं राहुल गांधी को लेकर भी राजनेताओं ने
अपनी राय बदली है। डीएमके नेता स्टालिन ने राहुल गांधी को आगामी चुनाव
में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने पर अपना समर्थन दिया तो वहीं एचडी
देवेगौड़ा ने भी प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गांधी के नाम पर अपनी सहमति
जताई है।
अब बीजेपी को इस बात पर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है कि क्या
वाकई हालिया नतीजे उसके ख़िलाफ़ हैं या ये सिर्फ़ हवाबाज़ी है। माना जा रहा
है कि ये नतीजे प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ हैं तो ये एक बड़ा सवाल है, लेकिन
इसमें को देराय नहीं कि राजस्थान में जहां शुरू में बीजेपी बड़ी हार की ओर बढ़
रही थी वहीं प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं के बाद हवा ने अपना रुख ज़रूर बदला
था। दरअसल राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार के ख़िलाफ जनता में काफी
नाराज़गी थी जिसका असर वहां के नतीजे बयां करते हैं। अगर याद हो तो
फिल्म पद्मावती प्रकरण जिसने काफी बड़े स्तर पर विकराल रूप धारण किया
था उस समय वसुंधरा सरकार माहौल को ठीक से संभाल नहीं पाईं और
आनंदपाल गैंगस्टर के एन्काउंटर से भी राजपूतों में अच्छा संदेश नहीं गया,
जिसका नतीजा ये हुआ कि राजपूत वोट बीजेपी के हाथ से खिसक गए। ये तो
वजह रही राजस्थान में हार की अब रुख करते हैं मध्य प्रदेश का जहां की
जनता शिवराज चौहान और उनके मंत्रियों के कामकाज से ख़ुश नहीं थी जिसका
परिणाम चुनावी नतीजों के रूप में निकलकर सामने आया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस
के जीतने की वजह लगभग यही रही जनता द्वारा सूबे की सरकार के ख़िलाफ़
अपना रोष व्यक्त करना था। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो बीजेपी की हार
के सीधे मायने यही हैं कि सत्ता पर क़ाबिज आलाकमानों की कार्यशैली जनता

को नहीं भाई, नतीजतन बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा, ये बात और है कि
बीजेपी और कांग्रेस के वोट में अंतर अधिक नहीं था बावजूद इसके जनता ने
सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथों सौंपने का मन बनाया और उसे सत्ता के
आसन पर कांग्रेस को बैठा दिया।
इसमें कोई संशय नहीं कि अब मोदी लहर थमती नज़र आ रही है। इन दिनों
बीजेपी के अंदरुनी खेमे में काफी उथल-पुथल भी देखने को मिल रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही देश में बीजेपी की सत्ता का विस्तार कर रहे हैं
लेकिन कई सहयोगी दल उनसे खुश नहीं हैं। जो सहयोगी दल अब तक बीजेपी
के साथ खड़े थे उनमें से कुछ तो उनसे दूरी बना चुके हैं और कुछ अभी अपनी
नाराज़ी व्यक्त कर रहे हैं। दूरी बनाने वाले सहयोगी दलों की फेहरिस्त में
शिवसेना, टीडीपी, भारतीय समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और अकाली
दल शामिल हैं। इसके अलावा रामविलास की पार्टी लोजपा (लोक जन शक्ति
पार्टी) के तेवर भी नाराज़गी भरे दिख रहे हैं जिसकी वजह है बीजेपी की वादा
ख़िलाफी। अगर यही हाल रहा तो 2019 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी को
कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। देखा जाए तो मोदी सरकार पर
वायदा ख़िलाफ़ी के आरोप उनके सहयोगी घटक दल ही नहीं बल्कि देश की
जनता भी लगाती है। अब ज़रूरत है तो वो ये कि मोदी सरकार को चुनावी
जुमले से बाहर आकर राजनीति के बदलते संस्करण को समझना होगा और
सियासी हवा के रुख को भांपकर उस ओर अपने क़दम बढ़ाने होंगे जिससे
विकास के सही मायनों के अर्थ को सार्थक किया जा सके। बीजेपी के लिए
समय रहते तीन राज्यों के चुनावी नतीजों से सबक लेना नितांत आवश्यक है
जो आगामी लोकसभा चुनाव के लिए उसकी दिशा और दशा सुधारने में सहायक
साबित होगा।

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